रविवार, 31 अक्तूबर 2021

विभाजन की क्रिया ‘वाम से दक्षिण’ क्यों ?

         प्रारम्भिक गणित की चार संक्रियाओं  सङ्कलन (Additions), व्यवकलन (subtraction), गुणन (multiplication), और विभाजन (division) को हम बचपन से करते आ रहे हैं। दाशमिक अंक पद्धति के परिपेक्ष्य में ‛अंकानाम् वामतो गतिः।’ के अनुसार जोड़, घटाव और गुणा की संक्रियाओं को तो हम सदैव दाये से बाएं (Right to Left) की ओर ही करते हैं। जो कि उचित भी हैं। अब मुख्य प्रश्न यह उठता हैं कि विभाजन (भाग) की क्रिया को ‛अंकानाम् वामतो गतिः।’ नियम के विरुद्ध वाये से दायें (Left to Right) की तरफ क्यों किया जाता है?! सही कहा जाये तो प्रारम्भिक गणित में भाग देने (division) की क्रिया थोड़ी अटपटी लगती हैं। चुकी हम अपने बचपन के दिनों से इसको ऐसे ही करते आ रहे हैं; इसलिये हममे से अधिकांश लोगों का ध्यान इसपर नही जाता। आप सब अपने बचपन को याद करो और बताओ कि आप मे से कितनों ने यह प्रश्न अपने अभिभावकों या अध्यापकों से पूछा हैं?! शायद कोई नहीं! यह विडंबना ही है कि हमारी बचपन की जिज्ञासा अनुकूल वातावरण के अभाव में मृतप्राय हो जाती हैं

       हम भारतीयों के लिए यह अत्यंत गर्व की बात है कि हमने संसार को गिनती सिखाया। हमने संसार को दाशमिक/दशमलव संख्या पद्धति जैसी अत्यंत उन्नत गणना प्रणाली दिया। एक बार महानतम भौतिक वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था कि, “हम भारतीयों के ऋणी हैं। यदि भारतीयों ने गिनती नही सिखाई होती तो हमरा विज्ञान आज भी बच्चा होता।” …  दाशमिक संख्या प्रणाली के द्वारा कितनी भी बड़ी और छोटी संख्याओं को सुगमता से लिख और समझ पाने के  साथ ही संकलनादि संक्रियाओं को बहुत ही लाघव और सहजता से कर पाना सुलभ हो सका। यह सर्वविदित है कि भारतवर्ष में उत्पन्न  दाशमिक संख्या पद्धति अरब के व्यापारियों के द्वारा मध्य एशिया से होते हुए यूरोप तक प्रकाशित होकर आज सम्पूर्ण पृथ्वी पर प्रयोग होती हुई आधुनिक ज्ञान विज्ञान का आधार स्तम्भ बना हुआ है

        दाशमिक संख्या पद्धति/दशमलव पद्धति अथवा दशाधार संख्या पद्धति (Decimal System, Base ten or Denary) वह संख्या पद्धति है जिसमें गिनती/गणना के लिए कुल दस अंकों या दस संकेतों (0,1,2,3,4,5,6,7,8,और 9) का प्रयोग किया जाता है। यह मानव द्वारा सर्वाधिक प्रयुक्त संख्या पद्धति है। स्यात् यह स्थानीय मान (place value) पर आधारित संसार की सर्वप्रथम संख्या प्रणाली है। ‘अंकानाम् वामतो गतिः।’ नियमानुसार इसमें प्रत्येक अंक स्थान अपने बायें वाले अंक स्थान से दस गुना होता है। यही कारण है की जोड़ घटाव आदि गणितीय संक्रियाएँ दायें से बायें (Right to Left) की तरफ की जाती हैं। वस्तुतः अंकों का योग 9 से अधिक होने पर प्राप्त होने वाली दो अंकों की संख्या में से बायें वाली संख्या को एक स्थान वाम में प्रतिस्थापित कर के पुनर्योग किया जाता है। वाम स्थान में प्रतिस्थापित होने वाली इस संख्या को ही तो हासिल (Carry Digit) कहते हैं। स्पष्ट है कि घटाव की क्रिया में (कम संख्यामान अंक में से बड़े अंक को घटाने के दौरान) बायें वाले अंक से 10 उधार लिया जाता है, क्योकि प्रत्येक अंक अपने से दायें वाले अंक से दस गुना होता है। इस तरह हम देखते हैं की दाशमिक पद्धति के मूलभूत नियम “अंकानां वामतो गतिः।” के अनुसार योग और वियोग (Addition and Subtraction) की संक्रियाओं को सहजता से सम्पन्न किया जा सकता है। यह ध्यातव्य है कि कुछ विशेष स्थितियों में इन संक्रियाओं को बाये से दाये (Right to left) किया जा सकता है। 

        प्रारम्भिक गणित की अन्य दोनों संक्रियाएँ ‘गुणन और विभाजन’, वस्तुतः जोड़ और घटाव के ही उन्नत प्रारूप (Advance form) हैं। यह स्पष्ट है कि -

    5 × 4 = 5+5+5+5 = 20 ,  क्रमावर्ती संकलनों का संक्षेपण ही गुणन है। अर्थात एक ही संख्या को यदि बार बार जोड़ना हो तो इसके संक्षिप्त रूप को ही गुणा कहते हैं। हम सब गुणा-भाग करने के लिए जिन सारणियों/पाहड़ा (Tables) का प्रयोग करते हैं वे सब समानांतर श्रेणी (Arithmetic progressions) ही तो होती हैं। और इसी प्रकार किसी संख्या में से किसी अन्य संख्या को बार बार घटाने की क्रिया को विभाजन कहते हैं। जैसे - 40÷7 = 5 भागफल और 5 शेषफल। 

   40 -7 = 33,  33 - 7 = 26,  26 - 7 = 19,  19 - 7 = 12,  12 - 7 = 5 

  यहाँ पर कुल घटाने की क्रिया पांच बार हुई है, अतः भागफल होगा 5 तथा अंत में शेष भी 5 बच गया। 

      अब, गुणा की संक्रियाओं को विस्तार से देखा जाए तो 

         

                35064   

          ×        37     

           ________

            245448

        +105192     

          ________              

          1297368            

             

       चुकि यहाँ(दूसरी पंक्ति में)  गुणा 30 से होता है, इसलिए गुणनफल एक अंक वाम में प्रतिस्थापित हो जाता है। यहाँ 8 के नीचे और 2 के दायें शून्य लिखा जा सकता है। 


                    (ध्यातव्य है कि गुणन की क्रिया को भी कुछ विशेष स्थितियों में वाए से 

                                                     दायें किया जा सकता है।) 


       

          अब आते हैं अपने मुख्य प्रश्न पर, विभाजन की क्रिया को ‛अंकानां वामतो गतिः।’ नियम के विपरीत बाएं से दाएं की तरफ क्यों किया जाता है?!  हम जानते है कि भाग (Divide) की क्रिया एक ही संख्या को बार बार घटाने की क्रिया है। यह बात सहज ही अनुभवजन्य है कि भाजक (Divisor) के बड़े गुणजों (multiples) को बार बार घटा करके किसी राशि को बाटना अपेक्षाकृत आसान और द्रुत होता है।
  जैसे 365 ÷ 9 

        365-9=356, 356-9=347, … , 23-9=14, 14-9=5 ( 40 बार घटाने पर ) 

     इसके अलावा यदि हम 9 का गुणज 45 (9×5) को बार बार घटाया जायेगा तो इसका परिणाम  मात्र 8 बार में ही प्राप्त हो जाएगा। इस प्रकार हम जानते हैं कि बड़ी संख्याओं में भाग देने के लिये भाजक के दस घात वाले गुणजो को घटना, क्रिया को बहुत आसान कर देगा। उदाहरणार्थ 


       78125 ÷ 12      

      

       78125

           - 72000   ( गुणज भागफल, 6000 )

          _______ 

               6125

             - 6000       (गुणज भागफल, 500 )

           ________

                 125

               - 120       ( गुणज भागफल, 10 )

               _____   

                     5      शेषफल  

                            

        भागफल का सम्पूर्ण योग = 6000+500+10 = 6510


      अब भाग देने के परम्परागत एल्गोरिथ्म (प्रमेयिका) पर विचार करते हैं। 

        एल्गोरिथ्म(algorithm) प्रमेयिका/कलन विधि  - एल्गोरिथ्म/प्रमेयिका सुपरिभाषित चरणों की एक श्रृंखला होती हैं जो किसी समस्या के हल का विधि बताती हैं।  



  78125 ÷ 12

        

        12 ) 78125  ( 6000 + 500 + 10

              -  72000                    = 6510   

              ________                भागफल 

                   6125 

      - 6000               

       ______             

          125                  

        - 120

        _____

              5   शेषफल  


 ( भाग देने Division की क्रिया में वस्तुतः हम सम्पूर्ण संख्या में से भाजक (Divisor) के गुणज (multiple) के 10 (दशम) घात वाले गुणजों को घटा रहे होते हैं।)


        यहाँ यह बात सहज ही अनुभवजन्य हैं कि, यदि भाज्य का बाएँ ओर से अंकों को लेकर यदि भाग दिया जाएगा तो भागफल में दशम घात लिखने का आवश्यकता ही नहीं पड़ेगा। बस भाज्य में से बाएं ओर से भाजक के स्थानीय मान के समकक्ष अंक लेकर घटाते रहो; और भागफल मे भी बाएं से दाएं की तरफ गुणज लिखते जाओ। सारी क्रिया अपने आप ही सम्पन्न होती जाएगी।


         कितना आनन्द प्रद हैं न! विभाजन की यह कलन विधि। 

         यही तो दाशमिक संख्या पद्धति का अति विशिष्ट गुण हैं। इस संख्या पद्धति का सहज, और सरल होना। तथा इसके द्वारा दुरूहता पूर्ण गणितीय गणनाओं को अत्यंत लाघव और सहजता से सम्पन्न कर पाने की सुलभता ने ही तो इसको विश्व का सिरमौर बना दिया। थोड़ा विचार करिये ना, रोमन आदि संख्या पद्धतियों में तो बड़ी संख्याओं के लिए जोड़ और घटाव जैसी साधारण गतिविधि ही कर पाने कठिन है। इन संख्या प्रणालियों में तो बहुत बड़ी संख्याओं को लिखना और पढ़ना ही कठिन है। गुणा और भाग के बारे में सोचना ही व्यर्थ है। फ्रांस के प्रसिद्ध गणितज्ञ पियरे साइमन लाप्लास के अनुसार, “भारत ने संख्याओं प्रदर्शन के लिए दस अंकों वाली एक अति निपुण प्रणाली दी है। महत्वपूर्ण बात तो यह है कि यदि इस प्रणाली के अन्य गुणों की उपेक्षा भी कर दी जाए, तो भी इसके सरतम होने को कदापि अस्वीकार नहीं किया जा सकता।” 





रविवार, 10 अक्तूबर 2021

जिज्ञासा

   

              ॐ  किम्  धीः  स्वः 

  तत्सवितुर्सर्वज्ञानं  सर्वज्ञानस्य जननीः। 

            जिज्ञासाः धीः प्रचोदयात् ।। 


   

   जिज्ञासा 

               “ज्ञातुमिच्छा जिज्ञासा।” (ब्रह्मसूत्र १.१.१) 

      सत्यान्वेषण का सङ्कल्प। प्रश्न-प्रतिप्रश्न के माध्यम से सत्य तक पहुँचने का सङ्कल्प। संकल्प, जो परम श्रेष्ठ तथा व्यक्ति और समाज(व्यष्टि एवम् समष्टि) सबके लिए परम हितकारी है। जिज्ञासा वह सहज प्रवृत्ति है, जो मनुष्य सहित प्रत्येक जीवित प्राणी में जन्मजात विद्यमान होती हैं। चेतनता की अधिष्ठात्री, जिसके अभाव में प्राणी प्राण रहते हुए भी जड़वत होता हैं। 

       शास्त्र की परिपाटी को मानते हुए, संस्कृत (जिज्ञासा गायत्री) से ग्रन्थ(ब्लॉग) को शुरू करने पर पाठकों को रोष नहीं होना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार जिज्ञासा ऐसी चीज के लिए होनी बताई गई हैं जो सर्वहितकारी हो अर्थात व्यक्ति और समाज सबके लिए परम हितकारी हो। महर्षि व्यास ने अपने शास्त्र में ब्रह्म को सर्वश्रेष्ठ माना जबकि व्यास-शिष्य जैमिनी ने धर्म को श्रेष्ठ कहा। शास्त्रों को आत्म-भोजी (शास्त्रों को अपने पुराने अवधारणाओं का भक्षण करते हुए, स्वयं को नित्य नवीन सत्य के प्रकाश में सदैव परिमार्जित करते हुए अद्यतन) होना चाहिए; अतः पुराने ऋषियों से मतभेद रखना हमारे लिए पाप की वस्तु नहीं हैं। मेरा विचार यह हैं कि, संसार की सर्वाधिक महत्वपूर्ण चीज स्वयं अपने आप मे जिज्ञासा ही हैं। क्योंकि यही समस्त चराचर जगत, ब्रह्म और धर्मादि ज्ञान का कारण हैं। समस्त शास्त्रों के सृजन का प्रेरक होने पर भी पुरातन ऋषियों ने स्यात् सत्यान्वेषण के इस सहज प्रवृत्ति को कम महत्व दिया। राहुल सांकृत्यायन जी ने घुमक्कड़ी को सर्वश्रेष्ठ माना। पुनश्च यह ध्यातव्य हैं कि, जिज्ञासा ही घुमक्कड़ी का बीज हैं। इसके अभाव में कोई घुमक्कड़ हो ही नहीं सकता। यदि घुनाच्छर न्याय बस कोई घुमक्कड़ हो भी गया तो वह किसी का हितकारी तो कदापि नहीं हो सकता हैं। कोई भी व्यक्ति जन्म से ना तो धार्मिक ही होता हैं और ना ही घुमक्कड़। परन्तु हर एक बालक जन्मजात जिज्ञासु होता हैं। उत्सुकता, अपने वातावरण को जानने की उत्सुकता हर एक प्राणी (मनुष्यों सहित लगभग प्रत्येक जीव जंतुओं का) का जन्मजात गुण हैं। 

       सत्यान्वेषण के मार्ग पर बढ़ने के लिए उत्सुक होना अत्यंत आवश्यक हैं। यह उत्सुकता ही हमे मार्ग से विमुख नहीं होने देती। जिज्ञासा हमें मिथक, मिथ्या तथा मिथ्याग्रह से परे जाने का सामर्थ्य प्रदान करती हैं। जिज्ञासुओं को टूटते मिथकों एवं खण्डित होते पूर्व धारणाओं से आहत नहीं होना चाहिए। उन्हें तो नवनिर्माण हेतु, नित नवीन सत्य एवं तथ्यों का स्वागताकांक्षी होना चाहिए। सदैव नव्यान्वेषणों मे निरत, परिवर्तन के लिए सदा तत्पर एवं मान-अपमान जैसी स्थितियों में सदा सम रहने वाले ही जिज्ञासु कहे जाने योग्य हैं। … जिज्ञासा, उत्सुकता यहीं से प्रारम्भ होती है ज्ञान प्राप्ति की मौलिक जीवन यात्रा; एक ऐसी सनातन यात्रा जो कि देश, काल व परिस्थितियों से बद्ध नहीं होती। और ना ही उदासीनता से लिप्त होती हैं। अब प्रश्न यह उठता है की जिज्ञासा को व्यवहार में कैसे उतारा जाय? किस प्रकार उचित परिप्रश्नों से यथार्थ को आविर्भूत किया जाय? … प्रश्न करो! बहुत सारा प्रश्न करो! नाना प्रकार के प्रश्नों से मस्तिष्क को प्लावित कर दो। एकमात्र यही विधि हैं। किम् धीः स्वः?  


    हे! जिज्ञासुओं! अपने अंदर के बालक को जगाओ। हमारे मन मे, अभिज्ञता के मूल में सदैव स्पंदित होने वाली जिज्ञासा के भाव जागृत हों। … ज्ञान-प्राप्ति के अपूर्ण लक्ष्य के प्राप्ति हेतु संकल्प के साथ-साथ एक उचित एवं कुशल रणनीति का होना भी अत्यंत आवश्यक हैं। मन मे भाव जाग्रत करें, जिज्ञासा का शमन उचित माध्यम यथा मूल पाठ अथवा ऐसे व्यक्ति के सानिध्य में करें जिसने विवेक के माध्यम से सत्यान्वेषण किया है। स्वयं भी प्रकृति के रहस्यों(परिघटनाओं) का प्रेक्षणों-सर्वेक्षणों के माध्यम से अवलोकन करें। अस्तु!!

      हे भावी जिज्ञासुओं! जिज्ञासु होने से भी अधिक महत्वपूर्ण यह हैं कि हम तर्क एवं कुतर्क के भेद को समझें; अन्यथा ज्ञान प्राप्ति की यह यात्रा सायास ही अनुशासनहीनता को जन्म देगी। पुनश्च यह कुतर्क जिज्ञासु को पतनोन्मुख कर देता हैं। 

     अतः आइये हम सब अपने हृदय में उत्सुकता की यज्ञाग्नि को प्रज्वलित कर, किम् आदि समिधा से ककारषष्ठी (क्या,क्यों,कब,कहाँ,कैसे,किस) आदि बीज मन्त्रों को जपते हुए इस परम् पवित्र जिज्ञासा गायत्री का अनुष्ठान करें।